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ईंट का जवाब पत्थर



                                     वीरपुर राज्य एक सुखी संपन्न राज्य था। लोग मेहनती, बहादुर और देशभक्त थे। राजा महेंद्र सिंह स्वयं एक कुशल योद्धा थे। उनकी राजधानी एक किले की दीवरों से घिरी थी। किला ऐसा, जिसके चारों आरे गहरी-चौड़ी खाई थी। दीवारें इतनी चिकनी कि कोई चीज उस पर ठहर न सके, फिसलकर गिर पड़े।

एश्वर्यपुर राज्य था तो वीरपुर से दूर मगर धनबल और सैन्यबल में बहुत शक्तिशाली था। वहां के राजा सूरज सिंह की नजर वीरपुर पर थी। उसके मन में वीरपुर को अपने अधीन करने की बहुत इच्छा थी।


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एक दिन सेनापति को दरबाद में पेश होने का हुक्म हुआ।

राजा सूरज सिंह का गंभीर स्वर गूंजा, ”सेनापति दमनसिंह, वीरपुर राज्य मेरे अधीन होना चाहिए। तुम्हें यह जीत हासिल करनी है। सच्चा राजपूत जब एक बार कुछ ठान लेता है तो उसे कोई रोक नहीं सकता। सफलता उसके कदम चूमने को बाध्य होती है।“

दमनसिंह ने सिरा झुकाकर आदेश स्वीकार कर लिया। पूरी तैयारी के साथ सेना वीरपुर के लिए चल पड़ी।

किले को घेर लिया गया। दमनसिंह ने अपनी सेना की कुशल व्यूह-रचना की। मगर बिना मुख्य फाटक खुले मुठभेड़ कैसे हो? गहरी खाई, किले की दीवार पर चढ़ने का अर्थ फिसलकर गहरी खाई में गिरना। दो दिन हो गए मुख्य द्धार को घेरे हुए। सेना का रसद पानी खत्म हो गया था और फिर बिना शत्रु से दो-दो हाथ किए केवल शत्रु को घेरे रहने से सैनिकों में एक तरह की ऊब पैदा हो रही थी। सेनापति दमनसिंह चिंतित हो उठे। किले के अंदर से तीरों की बौछार से उसके सैनिक मर रहे थे।

दमनसिंह अपने शिविर के बाहर चिंता से टहल रहा था। तभी उसकी नजर जमीन पर रेंग रहे काले-काले बिच्छुओं पर गई और उसे एक तरकीब सूझ गई।

वह तुरंत अपने कैंप में वापस आया। उसने अपनी सेना के कुछ चुने गए लोगों को आदेश दिया, ”मिटृी के छोटे-छोटे घड़े लाओ और इस इलाके से काले बिच्छुओं को पकड़कर इन घड़ों में डाल दो। घड़ों का मुंह कपड़ों से अच्छी तरह बंद कर दो। सारे घड़े यहां ले आओ।“

सैनिक इस कारवाई का उदेश्य समझ नहीं पाए मगर सेना को तो अपने अफसर के आदेश का पालन करना ही था। सैनिक सारे इलाके में फैल गए और एक घण्टे के अंदर कई घड़े तैयार हो गए। अब सेनापति ने वे घड़े किले के मुख्य द्धार पर तैनात वीरपुर की सेना पर फिंकवा दिए।

घड़े फूटते ही बिच्छू बाहर निकले और सैनिकों को डंक मारने लगे। दर्द से व्याकुल सैनिक किले का फाटक खोलने के लिए उधर ही भागे।

वीरपुर का सेनापति वहीं था। उसके होश उड़ गए पर थोड़ी देर में भगदड़ का कारण समझते ही वह जोर से चिल्लाया, ”बहादुरो, किले का फाटक मत खोलना। तुम्हें जन्म देते समय तुम्हारी मां ने और पालने में इस देश की मिटृी ने इससे भी ज्यादा दर्द सहा है। हिम्मत से काम लो। मेरे अगले हुक्म का इंतजार करो।“

सेनापति की कड़कदार आवाज सुन दर्द से व्याकुल सैनिक ठहर गए। अपना दर्द भूल गए। बिच्छू के डंक की लहर बहुत भयंकर होती है। वीरपुर के बांके जवान यह दर्द भी झेल गए।

इधर वीरपुर के सेनापति ने सोचा, ‘अपने देश की रक्षा के लिए हमें सिर-धड़ की बाजी लगानी ही पड़ेगी। दुश्मन का मुकाबला उन्हीं की योजना के अनुसार देना होगा।’

ऐसा सोचकर उसने फौज के उन जासूसों को बुलाया जो सांप पकड़ने में माहिर थे। ऐसे ही घड़ों में काले जहरीले सांप भरकर लाने का आदेश दिया।

अब बारी थी एश्वर्यपुर की सेना में भगदड़ मचने की। सांप के काटने से तुरंत मौत हो जाती है। ठीक उसी समय दो घटनाएं घटीं- किले के बाहर खड़ी सेना पर एक हमला पीछे से हुआ- तेज हमला और दूसरे किले का मुख्य फाटक खुला तथा सेना का सबसे तेज मारक दस्ता बाहर आया। एश्वर्यपुर की सेना तीन तरफ से घिर गई। सेनापति दमनसिंह सहित बहुत से सैनिक मारे गए। बचे-खुचे सैनिक भाग गए।

वीरपुर के दरबार में सेनापति का अभिनंदन हुआ। राजा ने पूरी सेना को भोज दिया। कई को वीरता पुरस्कार भी दिए।

भोज के समय हास-परिहास के बीच राजा महेंद्र सिंह ने सेनापति से पूछा, ”सेनापति महोदय, बिच्छू का जवाब सांप तुम्हारे दिमाग में यह विचार आया कैसे?

”महाराज, सीधी सी बात है। वे सेर तो हम सवा सेर। लोहे को तो लोहा की काटता है, महाराज।“ हंसी के ठहाकों से वातावरण गूंज उठा।

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