संत की सीख
एक समय की बात है-
काशी गाव में एक संत रहते थे, शिष्यों की शिक्षा पूरी होने के बाद संत ने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा-
प्यारे शिष्यों समय आ गया है अब तुम सबको समाज के कठोर नियमों का पालन करते हुए विनम्रता से समाज की सेवा करनी होगी।
तो एक शिष्य ने कहा- गुरुदेव हर समय विनम्रता से काम नहीं चलता!
संत
समझ गए के अभी भी उसमे अरमान मौजूद है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद संत
बोले- ज़रा मेरे मुँह के अंदर झाँक कर देख के बताओ अब कितने दाँत बचे हैं!
बारी-बारी से शिष्यों ने संत का मुँह देखा और एक साथ बोले-आपके सभी दाँत टूट चुके हैं।
संत ने कहा जीभ हैं के नहीं?
संत बोले-दाँतो को देखने की जरूरत नहीं है,
जीभ जन्म से मृत्यु तक साथ रहती हैं।
हैं न अजीब बात और दाँत जो बाद में आते हैं!
वो पहले ही छोड़ जाते है जब की उन्हें बाद में जाना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों होता है?
एक शिष्य ने बोला-- ये तो जिंदगी का नियम है,
संत- नहीं बच्चों इसका जबाब इतना सरल भी नहीं है, जितना तुम सभी समझ रहे हो।
संत- जीभ इसलिए नहीं टूटती क्योंकि उसमें लोच हैं वह विनम्र होकर अंदर पड़ी रहती हैं, उसमे किसी तरह का अहंकार नहीं है उसमे विनम्रता से सब कुछ सहने की शक्ति है, इसलिए वह हमारा साथ देती हैं।
जब की दाँत बहुत कठोर होते हैं,उन्हें अपनी कठोरता पे अभिमान होता हैं,
वो जानते हैं उनके वजह से ही इंसान की खूबसूरती बढ़ती है, इसलिए वह बहुत कठोर होते है,
उनका ये अहंकार और कठोरता उनकी बर्बादी का कारण बनती हैं, इसलिए तुम्हें अगर समाज की सेवा अच्छे से करनी हैं,
तो जीभ की तरह नम्र बनकर नियमों का पालन करना करो।
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